1 विभव विज्ञात छंद
*शिल्प विधान*
अर्ध - सम मात्रिक छंद
इस अर्ध - सम मात्रिक छंद में 4 चरण लिखे जाते हैं
विषम चरण (1,3) की मात्रा 17 रहती हैं
सम चरण (2,4) की मात्रा 11 रहती हैं
विषम चरण (1,3) की 15वीं मात्रा लघु अनिवार्य रहती है
सम चरण (2,4) की 11वीं मात्रा लघु अनिवार्य रहती है अर्थात अंत में गाल अनिवार्य रहता है।
चारों चरण में से कोई भी चरण जगण से प्रारम्भ नहीं होता
त्रिकल के साथ त्रिकल गूंथा हुआ हो तो लय निखर के आती है।
*उदाहरण:-*
अन्तस मन दिखते पाषाण सम, झरने बनते नेत्र।
बह जाती हैं कोमल भावना, द्रवित कोर के क्षेत्र।।
फिर सावन में नाचे मोरनी, नाच उठे मन मोर।
दोनों का मन मोहक नृत्य यूँ, रहा चित्त को चोर।।
पूछे सूती की सिकुड़न सदा, जल को क्यों फटकार।
जल की संगत का क्या है असर, क्या मेरा व्यवहार।।
कंकर को नित शंकर मानके, पूज रहे हैं लोग।
विषय वासना सब मिटती दिखे, मिट जाते सब रोग।।
अपने होते सब अपने कहे, अपनों का है मेल।
अपने सपनों में ही देखते, सपनों के ये खेल।।
खेलें होली यूँ रसखान जी, लेकर भक्ति गुलाल।
नाचे कृष्ण नाम की बांसुरी, छेड़े अद्भुत ताल।।
मीरा करती है सत्संग नित, नाचे दे दे ताल।
बलिहारी दिखते हैं कृष्ण जी, कहें जिन्हें गोपाल।।
पचपन बचपन में जीते दिखें, ये वृद्धों के काज।
हँसी ठहाकों की इस गूंज से, गूंजे पचपन आज।।
पनघट ने फिर से गाए बहुत, प्यास तृप्ति के राग।
कोयल चिड़िया के स्वर गूँजते, गूँज उठे फिर बाग।।
ये हाथी तजते कब मस्तियाँ, मस्ती के गोपाल।
पीछे श्वान भले सौ भौंकते, चले निराली चाल ।।
@डॉ संजय कौशिक 'विज्ञात'
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