Monday, 26 April 2021

विदुषी छंद रचयिता संजय कौशिक 'विज्ञात'


 

संजय कौशिक 'विज्ञात' जी द्वारा निर्मित  

'विदुषी छंद

■ विदुषी छंद का शिल्प विधान ■ 

वार्णिक छंद है जिसकी मापनी और गण निम्न प्रकार से रहेंगे यह दो पंक्ति और चार चरण का छंद है जिसमें 6,8 वर्ण पर यति रहेगी। सम चरण के तुकांत समान्त रहेंगे इस छंद में 11,14 मात्राओं का निर्धारण 6, 8 वर्णों में है किसी भी गुरु को लघु लिखने की छूट है इस छंद में लघु का स्थान सुनिश्चित है। लघु जहाँ है वहीं पर स्पष्ट आना चाहिए।


मापनी ~ 

221 222

212 212  22


तगण मगण

रगण रगण गुरु गुरु (गा गा)


विदुषी छंद की मापनी पर नवगीत


तारे सभी सिहरे

शोर करती रही तरणी

काली घटा छायी

साथ झूमे हवा धरणी


कैसी जगी तृष्णा

जीव के प्राण की प्यासी

चपला बनी रानी

घात सहती मृदा दासी

नैना सहे पीड़ा

शोक देती रही करणी


काँपे अधर कोमल

पुष्प बिखरे व्यथा सहते

कंटक कहे किस से

मौन सारे भ्रमर रहते

द्वारे खड़ी विपदा

त्राण मांगे कहाँ हिरणी


झाँके खड़ी आँगन

भीत सिसके हँसे चीरे

छप्पर गिरा नीचे

आज मिट्टी लगे हीरे

चूमे तनय माथा

छोड़ती प्राण वो गृहिणी


छाले कहे पग से

सहन हर घाव को करलो

कांटे गड़े पथ में

धैर्य कुछ भाव में भरलो

आहत हुआ अम्बर

और व्याकुल हुई धरणी


नीतू ठाकुर 'विदुषी'



विदुषी छंद की मापनी पर नवगीत 


सब भाग्य का है फल 

आपकी नेक हैं करणी

फिर कोप कैसा है

भीड़ ये मारती मरणी


ये भूल है कोई 

खा रही आज लोगों को

विष सोचता चीखे

दूँ अभी मार भोगों को

ये कौंधती बिजली

आज कम्पित लगे डरणी


वो दूर से फेंके

अस्त्र का शोध नित करता

हिय यत्न नित ढूँढे

घुट सिसकता रहा डरता

*आहत हुआ अंबर*

*और व्याकुल हुई धरणी*


ये धूल खुशियों पर

 घाव भी तो हुए गहरे

क्यों द्वार पर सबके

आज ये हैं लगे पहरे

ये मृत्यु की शैया

आज निश्चित हुई भरणी


राधा तिवारी "राधेगोपाल"

एल टी अंग्रेजी अध्यापिका

 खटीमा,उधम सिंह नगर

 उत्तराखंड



विदुषी छंद की मापनी पर नवगीत 


आहत हुआ अम्बर

और व्याकुल हुई धरणी

छाया सुनामी सा

झोल मारे धरा मरणी।।


आँधी चली बैरण

फोड़ती घाव नूतन से

लहरें रुदन करती

सिंधु का क्रोध भू तन से

बादल बनाते घर 

वज्र सी मार कर करणी।।


छाई खुशी बिखरे

कष्ट तांडव करे सिर पर

दिखते दिवस तारे

मृत्यु सौ नित रहे हैं मर

सूरज ग्रहण अवसर

कालिमा चर रही चरणी।।


यह शेर सी गर्जन

पाश अजगर निगलता सा

अटका शिखा में है

प्राण मुख में निकलता सा

भूकम्प के झटके

काँपती क्षिति लगे डरणी।।


संजय कौशिक 'विज्ञात'



3 comments:

  1. वाह! बहुत सुंदर अप्रतिम सृजन। नये छंद पर शानदार सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई विदुषी जी।
    विदुषी छंद विदुषी की लेखनी से सार्थक हुआ।
    बहुत बहुत बधाई।

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  2. बेहद खूबसूरत बहुत ही शानदार👌👌🙏

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  3. बेहद खूबसूरत लिखा आपने सखी शानदार जानदार क्या कहने🙏🙏

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