Wednesday, 30 October 2024

विज्ञात विरंचि छंद


 6 विज्ञात विरंचि छंद 

शिल्प विधान -

अर्द्धसम मात्रिक छंद की शृंखला में विज्ञात विरंचि छंद के चार चरण होते हैं। विषम चरण अर्थात प्रथम चरण तथा तृतीय चरण में मात्रा भार 17 रहता है और पंद्रहवीं मात्रा लघु अनिवार्य होती है। जबकि सम चरण द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में मात्रा भार 11 रहता है अंत गाल अनिवार्य लिखना होता है। 

इसका तुकांत विषम चरण में ही समान रहता है। यह इस छंद की विशेष सावधानी कही जाती है। 

यदि इस छंद के शिल्प विधान को वर्णिक दृष्टिकोण से समझना है तो यह स्पष्ट वाचिक मात्रा भार और शुद्ध वर्णिक छंद के रूप में भी मान्य रहेगा। विषम चरण समान तुक होना अनिवार्य है।

जगण यगण तथा तगण से प्रारम्भ वर्जित रहेगा। ऐसा करने से ही लयात्मकता आकर्षक होगी। 

22 22 22 212, 22 22 21

या 

22 22 22 212, 22 22 21


उदाहरण देखते हैं ... 


1

चल चुलकाना खाटू धाम पे, ले चल मुझको आज।

लगजा श्याम दर्श के काम पे, मिल जाएँ बस श्याम।।


2

महाकाल की अद्भुत चाल है, चले निराली चाल।

ये तो कालों के भी काल है, अटल मृत्यु कब टले।



@डॉ. संजय कौशिक 'विज्ञात'

विज्ञात व्याली छंद


 5 विज्ञात व्याली छंद 

शिल्प विधान -

सम मात्रिक छंद की शृंखला में विज्ञात व्याली छंद के 12 चरण होते हैं, 6 पंक्ति होती हैं।

प्रथम पंक्ति के दो चरण 17,11 द्वितीय पंक्ति के दोनों चरण 17,11 इस प्रकार से मात्रा भार को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते हैं। इसमें पहले चार चरण में मात्रा भार शिल्प विधान विभव विज्ञात छंद के समान ही रहता है।

तृतीय पंक्ति से - इसका प्रथम चरण विभव विज्ञात छंद का अंतिम चरण ज्यों का त्यों दोहराया जाता है। जिससे आगे का शिल्प विधान में प्रथम पंक्ति के दो चरण 11,17 द्वितीय पंक्ति के दोनों चरण 11,17 इस प्रकार से मात्रा भार को ध्यान में रखते हुए चार चरण लिखे जाते हैं जो विज्ञात वैजयंती छंद के समान लिखे जाते हैं। इस प्रकार 8 चरण पूरे होने के पश्चात अंतिम चार चरण के शिल्प विधान में विज्ञात वैजयंती छंद पुनः दोहराया जाता है। अंतिम शब्द चौकल के रूप में वही शब्द होगा जिस चौकल शब्द से छंद लिखना प्रारम्भ किया गया था। इतनी सावधानी अवश्य रखनी होगी कि जिस शब्द से छंद प्रारम्भ हुआ है वही शब्द अंत में आये। अतः यह छंद चौकल शब्द से प्रारम्भ करना अनिवार्य है।

यदि इस छंद के शिल्प विधान को वर्णिक दृष्टिकोण से समझना है तो यह स्पष्ट वाचिक मात्रा भार और शुद्ध वर्णिक छंद के रूप में भी मान्य रहेगा।

जगण यगण तथा तगण से प्रारम्भ पहले चार चरण में वर्जित रहेगा।  जबकि षष्ठम, अष्टम, दशम तथा द्वादश चरण में यगण से प्रारम्भ होने से लयात्मकता और अधिक आकर्षक होगी। 


22 22 22 212, 22 22 21

22 22 22 212, 22 22 21


22 22 21, 122 22 22 22

22 22 21, 122 22 22 22

22 22 21, 122 22 22 22

या 

22 22 21, 212 22 22 22

उदाहरण देखते हैं ... 


1

अपना मन रमता जोगी बना, और रमा ले गात।

शिव भोले में जो हो भावना, तभी बने हर बात।

तभी बने हर बात, लगन भी यूँ जब सच्ची लागे।

जागे नवधा भक्ति, शिवा शिव फिर थामेंगे आगे।

धार कण्ठ रुद्राक्ष, निरंतर शिव शिव को तू जपना। 

जपता जा नित मंत्र, लगाले ध्यान चरण में अपना।


@डॉ संजय कौशिक 'विज्ञात' 

विज्ञात विटना छंद


 4 विज्ञात विटना छंद 

शिल्प विधान -

सम मात्रिक छंद की शृंखला में विज्ञात विटना छंद के 8 चरण होते हैं, चार पंक्ति होती हैं।

प्रथम पंक्ति के दो चरण 17,11 द्वितीय पंक्ति के दोनों चरण 17,11 इस प्रकार से मात्रा भार को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते हैं। इसमें पहले चार चरण में मात्रा भार शिल्प विधान विभव विज्ञात छंद के समान ही रहता है 

प्रथम पंक्ति के दोनों चरण 11,17 द्वितीय पंक्ति के दोनों चरण 11,17 इस प्रकार से मात्रा भार को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते हैं। इस प्रकार अंतिम चार चरण के शिल्प विधान में विज्ञात वैजयंती छंद के समान रहता है। 

साथ ही एक सावधानी और रखनी होती है विभव विज्ञात छंद का अंतिम तुकांत विज्ञात वैजयंती छंद के प्रथम चरण के अंत में तुकांत समान रखना अनिवार्य होता है।

यदि इस छंद के शिल्प विधान को वर्णिक दृष्टिकोण से समझना है तो यह स्पष्ट वाचिक मात्रा भार और शुद्ध वर्णिक छंद के रूप में भी मान्य रहेगा।

जगण यगण तथा तगण से प्रारम्भ पहले चार चरण में वर्जित रहेगा।  जबकि षष्ठम तथा अष्टम चरण में यगण से प्रारम्भ होने से लयात्मकता आकर्षक होगी। 


22 22 22 212, 22 22 21

22 22 22 212, 22 22 21


22 22 21, 122 22 22 22

या 

22 22 21, 212 22 22 22

उदाहरण देखते हैं ... 


1

पूजे तुमको कवि माँ शारदे, ध्यान धरे दिन रात।

भर कविता में उत्तम भाव तुम, सिद्ध करो हर बात।।

हे सरस्वती मात, तुम्हारा वर कविजन को मिलता।

बनके मसि ये सिंधु, मंत्र सा तरु पत्तों पर खिलता।।

@डॉ संजय कौशिक 'विज्ञात' 

विज्ञात वैजयंती छंद


 3 विज्ञात वैजयंती छंद 

शिल्प विधान -

सम मात्रिक छंद की शृंखला में विज्ञात वैजयंती छंद के चार चरण होते हैं। विषम चरण अर्थात प्रथम चरण तथा तृतीय चरण में मात्रा भार 11 रहता है और अंत गाल से अनिवार्य रहता है। जबकि सम चरण द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में मात्रा भार 17 रहता है जिसका प्रारम्भ त्रिकल लगा अथवा गाल से अनिवार्य होता है।

यदि इस छंद के शिल्प विधान को वर्णिक दृष्टिकोण से समझना है तो यह स्पष्ट वाचिक मात्रा भार और शुद्ध वर्णिक छंद के रूप में भी मान्य रहेगा।

जगण तथा तगण से प्रारम्भ वर्जित रहेगा। जबकि द्वितीय तथा चतुर्थ चरण यगण से प्रारम्भ होने से लयात्मकता आकर्षक होगी। 

22 22 21, 122 22 22 22

या 

22 22 21, 212 22 22 22

उदाहरण देखते हैं ... 


1

श्याम धणी का नाम, सहारा बनता हर हारे का।

आते भक्त अपार, करें दर्शन बाबा प्यारे का।।


2

काँवड़ लेकर भक्त, चले बम शिव बम शिव नित रटते।

शिव का कृपा प्रसाद, मिले उनको कष्ट सभी कटते।।


विज्ञात विशाखा छंद


 2 विज्ञात विशाखा छंद 

शिल्प विधान 

समपाद मात्रिक छंद की शृंखला में विज्ञात विशाखा छंद के चारो चरणों में मात्रा भार समान रहेगा। प्रत्येक चरण में 17,17 मात्रा रहेंगीं। प्रत्येक चरण के अंत में लगा अनिवार्य रूप से स्थापित करना होगा।

यदि इस छंद के शिल्प विधान को वर्णिक दृष्टिकोण से समझना है तो यह स्पष्ट वाचिक मात्रा भार और शुद्ध वर्णिक छंद के रूप में भी मान्य रहेगा।

जगण यगण तथा तगण से प्रारम्भ वर्जित रहेगा।

22 22 22 212, 22 22 22 212

22 22 22 212, 22 22 22 212

उदाहरण देखते हैं ... 


1

पहन चले हैं भगवा रंग जो, उनके सम्मुख शीश झुकाइये।

वीर हुतात्माओं की शक्ति ये, इनकी जय जयकार लगाइये।।


2

कलयुग के संकट मोचन कहे, मिलके जै बोलो हनुमान की, 

सिंदूरी चोला तन पे सजे, माया अनुपम कृपा निधान की।।




विभव विज्ञात छंद


 1 विभव विज्ञात छंद


*शिल्प विधान* 

अर्ध - सम मात्रिक छंद 

इस अर्ध - सम मात्रिक छंद में 4 चरण लिखे जाते हैं 

विषम चरण (1,3) की मात्रा 17 रहती हैं 

सम चरण (2,4) की मात्रा 11 रहती हैं  

विषम चरण (1,3) की 15वीं मात्रा लघु अनिवार्य रहती है 

सम चरण (2,4) की 11वीं मात्रा लघु अनिवार्य रहती है  अर्थात अंत में गाल अनिवार्य रहता है। 

चारों चरण में से कोई भी चरण जगण से प्रारम्भ नहीं होता 

त्रिकल के साथ त्रिकल गूंथा हुआ हो तो लय निखर के आती है।


*उदाहरण:-*


अन्तस मन दिखते पाषाण सम, झरने बनते नेत्र। 

बह जाती हैं कोमल भावना, द्रवित कोर के क्षेत्र।।


फिर सावन में नाचे मोरनी, नाच उठे मन मोर।

दोनों का मन मोहक नृत्य यूँ, रहा चित्त को चोर।।


पूछे सूती की सिकुड़न सदा, जल को क्यों फटकार।

जल की संगत का क्या है असर, क्या मेरा व्यवहार।।


कंकर को नित शंकर मानके, पूज रहे हैं लोग।

विषय वासना सब मिटती दिखे, मिट जाते सब रोग।।


अपने होते सब अपने कहे, अपनों का है मेल।

अपने सपनों में ही देखते, सपनों के ये खेल।।


खेलें होली यूँ रसखान जी, लेकर भक्ति गुलाल।

नाचे कृष्ण नाम की बांसुरी, छेड़े अद्भुत ताल।।


मीरा करती है सत्संग नित, नाचे दे दे ताल।

बलिहारी दिखते हैं कृष्ण जी, कहें जिन्हें गोपाल।।


पचपन बचपन में जीते दिखें, ये वृद्धों के काज।

हँसी ठहाकों की इस गूंज से, गूंजे पचपन  आज।।


पनघट ने फिर से गाए बहुत, प्यास तृप्ति के राग।

कोयल चिड़िया के स्वर गूँजते, गूँज उठे फिर बाग।।


ये हाथी तजते कब मस्तियाँ, मस्ती के गोपाल।

पीछे श्वान भले सौ भौंकते, चले निराली चाल ।।


@डॉ संजय कौशिक 'विज्ञात' 


Wednesday, 16 October 2024

विभव विज्ञात छंद : डॉ. संजय कौशिक "विज्ञात"



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  *कलम की सुगंध, छंदशाला,संचालन मंडल*

.     👀👀 *पंच परमेश्वराय:नम:*👀👀
आ.अनिता भारद्वाज अर्णव जी की गरिमामयी उपस्थिति में
*आदरणीय श्री संजय कौशिक विज्ञात जी द्वारा प्रस्तुत नव अन्वेषित छंद पर*

*आ. बाबू लाल शर्मा बौहरा विज्ञ,*
*एवं आ. इन्द्राणी साहू साँची जी, की समीक्षा एवं पटल के सुधि छंदकारों*---
1 अनिता सुधीर 'आख्या' जी , 2 डॉ. नीतू ठाकुर 'विदुषी' जी , 3 कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा' जी , 4 डॉ. एन के सेठी जी , 5 डॉ. सीमा अवस्थी जी , 6 पूनम दुबे 'वीणा' जी , 7 अनिता मंदिलवार 'सपना' जी, 8 डॉ. दीक्षा चौबे जी , 9 सौरभ प्रभात जी , 10 अनुराधा चौहान 'सुधी' जी, 11 डॉ. सरला सिंह 'स्निग्धा' जी, 12 आरती श्रीवास्तव 'विपुला' जी, 13 रवि रश्मि 'अनुभूति' जी , 14  किरण कुमारी वर्तनी जी,ज्ञ15  बाबू लाल शर्मा, बौहरा 'विज्ञ' जी , 16 राधा तिवारी 'राधेगोपाल' जी, 17 परमजीत सिंह 'कोविद' कहलूरी जी, 18 वन्दना नामदेव जी, 19 डॉ इन्द्राणी साहू "साँची" जी, 20 डॉ सरोज दुबे 'विधा' जी, 21आशा शुक्ला " कृतिका" जी, 22 सुनील वाजपेयी "शिवम" जी, 23 श्वेता "विद्यांशी" जी, 24 सरला झा "संस्कृति" जी, 25 मधु सिंघी जी, 26 अलका जैन "आनंदी" जी, 27 उषा झा जी, 28 हेमा जोशी जी, 29 बिंदु प्रसाद "रिद्धिमा" जी, 30.योगमाया शर्मा जी, चमेली सुवासिता जी... एवं उपस्थित गणमान्य साहित्यकारों
*की इन छंदों पर रचनाओं के विवेचन, गेयता परीक्षण व सहमति के आधार पर आज हिन्दी साहित्य हेतु एक नवीन मात्रिक छंद  "विभव विज्ञात छंद"  को सहर्ष मान्यता प्रदान की जाती है।*

मात्रिक छंद का नाम.-   *विभव विज्ञात छंद*
आविष्कारक... *संजय कौशिक विज्ञात*

*शिल्प विधान*
अर्ध - सम मात्रिक छंद
इस अर्ध - सम मात्रिक छंद में 4 चरण लिखे जाते हैं
विषम चरण (1,3) की मात्रा 17 रहती हैं
सम चरण (2,4) की मात्रा 11 रहती हैं 
विषम चरण (1,3) की 15वीं मात्रा लघु अनिवार्य रहती है
सम चरण (2,4) की 11वीं मात्रा लघु अनिवार्य रहती है  अर्थात अंत में गाल अनिवार्य रहता है।
चारों चरण में से कोई भी चरण जगण से प्रारम्भ नहीं होता
त्रिकल के साथ त्रिकल गूंथा हुआ हो तो लय निखर के आती है।

*उदाहरण:-*

अन्तस मन दिखते पाषाण सम, झरने बनते नेत्र।
बह जाती हैं कोमल भावना, द्रवित कोर के क्षेत्र।।

फिर सावन में नाचे मोरनी, नाच उठे मन मोर।
दोनों का मन मोहक नृत्य यूँ, रहा चित्त को चोर।।

पूछे सूती की सिकुड़न सदा, जल को क्यों फटकार।
जल की संगत का क्या है असर, क्या मेरा व्यवहार।।

कंकर को नित शंकर मानके, पूज रहे हैं लोग।
विषय वासना सब मिटती दिखे, मिट जाते सब रोग।।

अपने होते सब अपने कहे, अपनों का है मेल।
अपने सपनों में ही देखते, सपनों के ये खेल।।

खेलें होली यूँ रसखान जी, लेकर भक्ति गुलाल।
नाचे कृष्ण नाम की बांसुरी, छेड़े अद्भुत ताल।।

मीरा करती है सत्संग नित, नाचे दे दे ताल।
बलिहारी दिखते हैं कृष्ण जी, कहें जिन्हें गोपाल।।

पचपन बचपन में जीते दिखें, ये वृद्धों के काज।
हँसी ठहाकों की इस गूंज से, गूंजे पचपन  आज।।

पनघट ने फिर से गाए बहुत, प्यास तृप्ति के राग।
कोयल चिड़िया के स्वर गूँजते, गूँज उठे फिर बाग।।

ये हाथी तजते कब मस्तियाँ, मस्ती के गोपाल।
पीछे श्वान भले सौ भौंकते, चले निराली चाल।।
~~~~~~ संजय कौशिक विज्ञात
.                   👀👀🌼👀👀
*विभव विज्ञात छंद* को आज दिनांक १६.१०.२०२४ को मान्यता प्रदान की जाती है।

.........✍
*बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ*
वास्ते-
*कलम की सुगंध  : छंदशाला*
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विभव विज्ञात छंद पर रचनाकारों की कुछ रचनाएँ 

.                 नव अन्वेषित छंद ( विभव विज्ञात छंद)


विधान:-- २७ मात्रा प्रति पंक्ति

१७, ११ मात्रा पर यति

१५, २७ वी मात्रा लघु रहे

[ ८+४+२१२, ८+२१ ]

सम चरणांत में गुरु लघु २१ हो

समचरण समतुकांत हो


.                __मनभावन प्रीत__

.                              .....

सावन मास पुन्य सौगात है, कर लें सच्ची प्रीति।

मोर पपीहा दादुर रीतिवत, भली निभा लें रीति।।


नभ में छाएँ बादल श्याम हैं, तन मन उठे हिलोर।

रिमझिम  वर्षा प्रात: शाम की, पुरवा करती शोर।।


पूजे कनक चढ़ाते आक दल, विल्व संग अभिषेक।

मूर्ति शंभु सेवक शुभ कामना, करें  कर्म  हम नेक।।


झूलन चाह कुमारी पींग पर, नवल प्रीति नवमीत।

याद रहे नट कान्हा धींग बस, विज्ञ'  रचे नवगीत।।


हर्षित  कृषक  बावरे  खेत हैं, फसल बढ़े भरपूर।

भरते  गमले पौधे  रेत जल,  हो प्रियतम क्यूँ दूर।।


सर सरिता वन बाग तलाव में, छाई मीत बहार।

नीर भार भर हँसती बावड़ी, करते नाव विहार।।


सागर से मिलने की होड़ में, चली सरित भर नीर।

जड़ चेतन  तट  बंधन तोड़ ती, सहती बहे अधीर।।


सावन पावनतम शुभ रीतियाँ, ऋतुवत रच नवगीत।

भक्ति शक्ति मनभावन प्रीत में, 'विज्ञ' बनो मनमीत।।

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✍©

बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

सिकंदरा, दौसा, राजस्थान

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हंसवाहिनी माता शारदे, श्वेतांबर परिधान।

स्वर की देवी मुझको भी मिले, मधुरिम कण्ठ सुगान।


कमलासन पर माता सोहती, वीणा पुस्तक हाथ।

उत्तम विद्या बुद्धि प्रदायिनी, तुम्हें नवाऊँ माथ।।


हर लेती सबकी अज्ञानता, करती दिव्य प्रकाश।

देवी देती सबको मति विमल, कर दुर्बुद्धि विनाश।।


हे अंबे माँ विमला निर्मला, देती हो सद्ज्ञान।

जिस प्राणी पर करती हो कृपा, बनता वही महान।।


मातु क्षमा कर दो अपराध सब, हो जाऊँ मैं धन्य।

प्राप्त अनुग्रह कर करुणामयी, पाऊँ भक्ति अनन्य।।


दृष्टि दया पाकर जगदंबिके, मूढ़ बने वेदज्ञ।

गूढ़ रहस्य समझ कर शास्त्र का, बन जाते सब प्रज्ञ।।


मेरे सब दुख दुर्गुण नाश कर, भर सद्गुण का कोष।

धारण कर लूँ शुभ शुचिता सभी, हिय न रहे कुछ दोष।।


"साँची" सच्ची श्रद्धा भक्ति से, करती वंदन ध्यान।

मैं मूरख खल कामी मूढ़ हूँ, दो मुझको सद्ज्ञान।।


    *डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"*

भाटापारा, छत्तीसगढ़

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माता नीलभुजा विनती सुनो, रखो कलम का मान।

नवल छंद मैं रचना चाहती, सम्मुख बैठो आन।।१।।


रात दिवस साधक की साधना, भक्ति भाव से पूर्ण।

तप संयम शुद्ध भाव से सदा, करे मदों को चूर्ण।।२।।


सारा जीवन बीता त्याग में, भाव सदा ही शुद्ध।

ध्येय रहा उत्तम थी साधना, वे कहलाए बुद्ध।।३।।


कोकिल कुंजित अब सब बाग है, दादुर करते शोर।

अम्बर पर घुमड़े काली घटा, वन-वन नाचे मोर।।४।।


साँझे की खुशियाँ मिलती जहाँ, दुख में सब का साथ।

टले काल की भीषण आँधियाँ, लिए हाथ में हाथ।।५।।


राह चुनो जब भी संकल्प से, तभी बनेंगे काज।

हिम्मत से आगे बढ़ते रहो, जगत करेगा नाज।।६।।


दौलत का भारी पर्दा पड़ा, दिखे नहीं दुख दीन।

भोगों में मानव लिपटा रहे, स्वयं स्वार्थ में लीन।।७।।


भाव बिना तो सुंदर शब्द भी, होते कोरा जाल।

चंदन सरसी गमक सुगंध ही, चढे ईश के भाल।।८।।


अपना घर सबको प्यारा लगे, जैसे हो निज पूत।

चादर मंजुल भावन सी बने, जोड़ जोड़कर सूत।।९।।


निर्बाधित गति दुर्गम काल की, कौन लगाए रोक।

रातें कभी गहन अंधेर है ,कभी शुभ्र आलोक।।१०।।


काया पर सुंदर श्रृंगार है, मन का श्यामल रंग।

निजता के मोहक संसार में, मूल्य हुए हैं भंग।।११।।


कहते अभिमानी के ज्ञान का, पात्र सदा ही रिक्त।

विनय भाव मन से जो धारता, रहे स्नेह से  सिक्त।।१२।।


सदा काक कड़वा ही बोलता, पाता है अपमान।

निज की वाणी वो छोड़े नहीं, करले  दोहज पान।।१३।।


पंकज आसन पर माँ बैठती, विद्या देना काम।

पहने तन पर उजले वस्त्र है , शतरूपा है नाम।।१४।।


अधजल रिक्ता छलके पात्र है, भरा बैठ चुप साध।

पढ लो समझो मौन विवेक से, ज्ञानी ज्ञान अगाध।।१५।।


स्वरचित 

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

कलकत्ता, पश्चिम बंगाल

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नमन गुरुदेव 🙏

*नूतन छंद पर एक प्रयास*


1

बनके भारत माँ के गर्व ये, लिखते छंद कमाल।

कृपा करे नित माता शारदे, हुए इन्हीं के लाल।।

2

कविता बनती कोमल भाव से, बने ज्ञान से छंद।

दोनों ही हैं मधुरिम कर्ण प्रिय, देते नित आनंद।।

3

चार चरण में ही नित पूर्ण हो, मनुज देह का काल।

गाय बैल मर्कट अरु श्वान सा, होता उसका हाल।।

4

सागर के मोहक तट पर खड़ा, व्याकुल हृदय उदास।

सोचे खारा जल किस काम का, साथ खड़ी जब प्यास।।

5

दुष्ट धूल धूमिल करती सदा, मोहक उजले चित्र।

वैसे मन मलीन करते दिखें, स्वार्थ भरे खल मित्र।।

6

प्रायः दीर्घ प्रतीक्षा से मिले, एक सुहानी भोर।

बांधो राही मन की डोर से, व्यथित हृदय के छोर।।

7

कहती निस दिन कलम सुगंध है, लिखो छंद अनमोल।

भाव शब्द का मधुरिम योग हो, मात्रा को लो तोल।।

8

देख दक्ष की दूषित दक्षता, किया सती ने दाह।

शिव शंकर के तीनों नेत्र से, बहे हृदय की आह।।

9

लोहा नित अपनी ही जंग से, बने काल का ग्रास।

वैसे ही दुख चिंता से मनुज, क्षण क्षण खोता श्वास।।

10

पावन पथ से जब भटके पथिक, पाकर पापी पंख।

धर्म धुरी के अविचल धैर्य को, ललकारे लघु शंख।।

11

मोहन जैसा छलिया सारथी, पार्थ सरीखा वीर।

देख कर्ण के अतुलित शौर्य को, क्षण भर हुए अधीर।।


नीतू ठाकुर "विदुषी"

रायगड, महाराष्ट्र

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मापनी

22 22 22 212,22 22 21

22 22 22 212,22 22 21


नदियां झरने झीलें बावड़ी, शीतल देते नीर। 

गहरी चोटें खाकर भी चलें,बढ़ती जाती पीर। 


ऑंगन में सूरज की रोशनी, चिड़ियाँ करती शोर। 

डाली डाली कोयल कूकती,वन में नाचें मोर।।


भारतवासी रहते प्रेम से, देते पूरा साथ। 

दीन दुखी सब मित्रों का सदा, पकड़े रखते हाथ। 


नारी प्यारी लिपटी लाज में, भर आंखों में शर्म। 

ऐसा सुंदर अपना देश है, समझो इसका मर्म।।


नव युग की है ऐसी चेतना, बूढ़े लगते भार। 

सेवा इनकी कर लो भाव से, दिन जीवन के चार। 


व्यक्ति बड़ा होता है कर्म से, अच्छे कर लो कर्म। 

दीन दुखी सबकी सेवा करो, यही तुम्हारा धर्म।।


नारी होती है नारायणी, मत पूछो तुम जात। 

नहीं करो इसका सम्मान तो, पड़े समय की लात। 


नारी ऐसा प्यारा दोस्त है, सदा निभाती साथ। 

पलकों पर रखना इसको बिठा, कभी न छोड़े हाथ।।


भक्त बना हूं मैं हनुमान का, करें कृपा बजरंग। 

देख देह विकराल विशाल सी, रह जाते सब दंग। 


हनुमान भक्त हैं श्री राम के, थामें उनका हाथ। 

दुःख नहीं आते हैं पास में, करें कृपा रघुनाथ।।


     परमजीत सिंह कोविद कहलूरी

कहलूर, हिमाचल प्रदेश

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सुख समृद्धि वैभव आरोग्य को,ले आते त्योहार।

धर्म सनातन की यह श्रेष्ठता,पाए नित विस्तार।।


शुभ तिथि पावन अश्विन मास की,लाती शुभ संयोग।

शरद पूर्णिमा की शुभ रात्रि में,मिले अमिय का भोग।।


धवल नवल चमके जब चंद्रमा,नैसर्गिक यह रूप।

सोलह गुण से फिर परिपूर्ण हो,भरे हृदय का कूप।।


मां लक्ष्मी आएं भू लोक पर,हो दीपक घर द्वार।

विधि विधान से पूजन पाठ कर,शुद्ध करें आचार।।


शीतलता गुण ले विधु की किरण,करे खीर जब स्पर्श।

आध्यात्मिक वैज्ञानिक भाव में,मिलें सत्व के दर्श।।


शरद ,रास पूनम, कोजागिरी,होंगे नाम अनेक।

जीवन पावन निर्मल हो सफल,लक्ष्य सभी में एक।।


रास देखकर गोपी कृष्ण का,ले शशि जब आनंद।

आत्मसात कर मनहर दृश्य को,कवि लिखते नित छंद।।


अनिता सुधीर आख्या

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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गोद ललन ले जब सौरभ शिखा, घर में करें प्रवेश।

लगता जैसे पुंज प्रभात में, आएँ हैं अवधेश।।


हर्षित होकर आँगन झूमता, गूँजे मंगल गान।

बाल रूप धर पुंज प्रभात में, आए हैं भगवान।।


कठिन तपस्या संयम धैर्य का, मिला पुण्य परिणाम।

गूँज रही है पुंज प्रभात में, किलकारी अभिराम।।


अरुणाभा की शुभ छाया तले, बढ़े हमारा लाल।

बाल सुलभ मोहक किलकारियाँ, सबको करें निहाल।।


मात पिता गुरु के आशीष से, चमके उज्ज्वल भाल।

गौरव दीपक पुंज प्रभात का, बने हमारा लाल।।


✍🏻©️सौरभ प्रभात 

मुजफ्फरपुर, बिहार

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गूंजे धरा गगन पाताल में,जन गण मन का गान।

बढ़ी प्रतिष्ठा भारत देश की, करता जग सम्मान।।


गिरि शिखरों को छुए विकास है,तान रहा निज माथ।

सीढ़ी पीढ़ी सब नूतन गढ़े, जुटे कोटि जन हाथ।।


सत्य अहिंसा धारे सादगी,भारत का परिवेश।

नीति रीति की गह मुखिया गिरी,कदम बढ़ाता देश।।


रोजी रोटी अरु छत के लिए, झुका चुके जिन रेख।

बहुत अचम्भित दुश्मन देश हैं, ताकत बढ़ती देख।।


सकल विश्व है इक परिवार सा,भाई चारा राग।

तन मन धन सब रखिए होश में,लगे शिवम् नहिं दाग।।


*सुनील वाजपेयी शिवम्*

तिलोकपुर (हैदरगढ़) बाराबंकी,उ.प्र.

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1.

गौ माता की नित रक्षा करो,  

                   पावन है ये काम। 

इसकी सेवा में मिलते सदा, 

                पल में चारो धाम ।।


2.

जो मनु अच्छी संगत में रहा,  

              वो सज्जन इंसान ।

 जो भी लोहा  पारस को छुआ, 

                  दे कुंदन पहचान।। 


3.  

बोझिल जीवन क्यों मनु का बना,

                कारक कारण खोज। 

 तोड़ा -जोड़ा मन के तार को, 

                मिथ्या बोली रोज।। 

4.

गाड़ी रूपी मानव जीव के,  

                चालक है भगवान। 

मंदिर मस्जिद में क्या ढूँढना, 

            मन के प्रभु पहचान।। 


5.

नित मानव को  मानस शक्ति से,  

             मिलता हर पल जीत। 

मैं तू में मनु मत उलझो कभी, 

           सुख- दुख जीवन मीत।। 


चमेली नेताम "सुवासिता"✍️

छत्तीसगढ़

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22 22 22 212,22 22 21

22 22 22 212,22 22 21

भ्रष्टाचार

कैसा युग आया है देखिए, फैला भय चहुंँ ओर।

मुक्त नि:शंक होकर हैं डोलते, कपटी खूनी चोर।।


अब जमकर गहरी जड़ शाख में,फैला भ्रष्टाचार।

जीतेगा सदैव धनवान ही , है गरीब की हार।।


 व्यापारी अपना सौदा करें, शुद्ध लाभ को देख।

वस्तु मिलावट की ही बेचते ,सब नकली अभिलेख।।


सीमा से बढ़कर लालच हुआ,सुरसा मुख विस्तार।

मतवाले सब दुर्गुण में हुए, है छल का व्यापार।।


दूषित है ऐसा वातावरण,करना होगा शुद्ध।

ऐसे सब दुर्गुण को मारकर,बनना हमें प्रबुद्ध।।


आशा शुक्ला "कृतिका", 

शाहजहांपुर,उत्तरप्रदेश

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वसुधा रोती है सारे सुनो, करुणामई पुकार।

काटे क्यों कानन तुमने सभी, छीन लिया शृंगार।।


धरनी छिन्न भिन्न मस्ता हुई, सूना होता भाल।

मानव रोते क्यों जब आ रही, बाढ रूप में काल।।


दूषित शोषित हो सरिता कहे, बिगड़ा मेरा रूप।

विसरित करते हो नित गंदगी, हे जग-मानव भूप।।


गंदा जल मुझमें देते बहा, उथले होते पाट।

किल्लत पानी की अब हो रही, खड़ी हुई क्यों खाट।।


घंटी खतरे की बजती सुनो, गलती सभी सुधार।

संरक्षण करना पर्यावरण, मनुज बदल व्यवहार।।


डॉ. दीक्षा चौबे

छत्तीसगढ़

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शरद पूर्णिमा अश्विन मास में, चाॅंद कलाओं युक्त।   

सुख वैभव श्री लक्ष्मी दायिनी, करे शोक अभिमुक्त।। 


शरद शीत ऋतु पूनम यामिनी, लगे सुहानी आज । 

मधुर मनोहर चंचल वायु भी , छेड़े सुंदर साज ।। 


नील नवल नभ बिखरी चाॅंदनी, चंद्र किरण मनुहार । 

देख छटा अद्भुत मन पावनी, बलिहारी शत बार ।। 


इंदु कला शोभित शुभ षोडशी, उज्ज्वल शीतल रात । 

सोम सरस रस बरसे कामिनी, दिव्य अमित सौगात।। 


महारास शुभ निशि यह पूर्णिमा, भर देता नव स्फूर्ति । 

दीप जले मंगल शुभ साधना, सर्व कामना पूर्ति। । 


वन्दना नामदेव

अकोला, महाराष्ट्र

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1.जय गणेश जय गणपति देवता, करती नित्य प्रणाम|

नवल छंद लिखती अब लेखनी,सुमिरन करके नाम||


2.हँसवाहिनी माता शारदे, नमन करूँ सौ बार ||

 तूलिका लिखे छंद विधान नित,कर देना उपकार |


3 ज्ञान मिला गुरुवर से छंद का, करतें हैं आभार ||

आशीष हमें गुरुवर दीजिए, करें ज्ञान विस्तार ||


4.वृद्ध हँसे नित खुश होकर रहें ,वह घर स्वर्ग समान |

मातु -पिता ही होते हैं सदा,धरती पर भगवान ||


5.संगत संतो की करना मनुज ,देते हैं यह ज्ञान ||

मन पावन कोमल निर्मल बनें,और मिले सम्मान ||


6.सच्चा ज्ञानी करता है नहीं, व्यर्थ कभी संवाद ||

व्यर्थ वाद से ही बढ़ता सदा,मानव में अवसाद ||


7.नित्य कृष्ण राधा की भक्ति में, रहता है जो लीन|

हो जाती है फिर उसकी खुशी, उसके ही आधीन ||


8.श्वेत वसन माँ दुर्गा धारतीं ,करतीं वृषभ सवार ||

भोग लगे कदली फल नारियल,और चढ़े श्रृंगार ||

(श वाला श्रृंगार हमारे की बोर्ड से नहीं लिखा रहा है )


9.कठिन तपस्या से जब हो गया,माँ का काला रूप |

गंगा जल पड़ते ही तन हुआ, गौर वर्ण ज्यों धूप ||


10.शरणागत होकर जो भी करें, माँ का नित ही ध्यान |

सुख साधन यश वैभव संग में,पाता वह सम्मान ||


11.चंद्र सुशोभित मंजुल भाल पर,भस्म मले हैं अंग|

नीलकंठ भोले नटराज तन,लिपटे रहे भुजंग ||


डॉ. सरोज दुबे 'विधा'

रायपुर, छत्तीसगढ़

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देख चकोरी चमकी चाँदनी, करते बादल शोर।

पुलकित चाँद हुआ है देखके, अब धरती की ओर।।


लग जाती है चोटें जब मिले, अपनों से संताप।

तब तो बनता जाता है सुनो, जीवन भी अभिशाप।।


राम सिया की कर आराधना, बनते बिगड़े काम। 

सुख-दुख के ही मेल मिलाप से, होता पुलकित चाम।।  


करता है नाश सर्वदा नशा, रहना इनसे दूर। 

मनमौजी मंजिल हो सामने,  राहें मिले जरूर।।


राधा तिवारी 'राधेगोपाल'

खटीमा, उत्तराखंड

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सुख-दुख तो कर्मों का फेर है,रोता क्यों तू देख।

जो कर्म करें पाए सुख वहीं,बदल भाग्य का लेख॥


श्रम बिन रखते हो यह चाह क्यों,पथ हो केवल फूल।

सच्ची निष्ठा से तू कर्म कर,हट जाते सब शूल॥


अपनी वाणी पर संयम रखें,बोल न वचन कठोर।

ढल जाती है काली रैन जब, खिलती सुंदर भोर॥


सीखो हर पग मिलती सीख से,यह जीवन का सार।

जो चूके ठोकर खाकर गिरे,मिलती उसको हार॥


सेवा दान दया के धर्म के,चल कर्मों को थाम।

मानव जीवन का यह मर्म है, करले अच्छे काम॥

अनुराधा चौहान 'सुधी'

मुंबई, महाराष्ट्र

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अपनी प्रिय भाषा अरु संस्कृति, सजे मधुर संगीत।

श्रेष्ठ वेश भूषा साहित्य से, साथी बनते मीत॥


अपना प्यारा है छत्तीसगढ़, सुंदर पावन धाम।

अंबा जी का है प्रिय राज्य ये, मन में बसते राम॥


नाचें अविरत सारी गोपियाँ, लेकर कर की ताल।

झूम उठे यमुना तट बाँसुरी, करते कृष्ण कमाल॥


रोचक कविता नाटक गद्य की, अपनी है पहचान।

सक्षम छत्तीसगढ़ी लोक की, आप अलग है शान॥


लिखती संयत मेरी लेखनी, केवल आज यथार्थ।

गीता योद्धा प्रभु श्री कृष्ण को, उनके अनुचर पार्थ॥


अनिता मंदिलवार सपना

अंबिकापुर सरगुजा छत्तीसगढ़

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शुभ-शुभ ही करते हैं काम वो, शिव गौरी के लाल।

भोले भाले भोलेनाथ हैं,करते खूब कमाल।।


मंगल महिमा उनकी जानिए, गणपति भोले नाथ।

निसदिन वंदन करती आपको, जोड़े दोनों हाथ।।


सावन पावन पावस है सखी, सुखद लगे बरसात।

गुमसुम बैठे सखियां हैं सभी,होती मीठी रात।।


 मोहक पूजन अर्चन देव की,शिव गौरी है संग।

भाव भरी हर मीठी बात है, खुशियों के है रंग।।


सावन में ही झूला डालिए,छाया हुआ उमंग।

कजरी सब प्रिय सखियांँ गा रही, थिरके सारे अंग।।


पूनम दुबे "वीणा"

अम्बिकापुर छत्तीसगढ़

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

मातु शारदे मेरी वंदना, सुनो नवल है काज।

नूतन रचना की है साधना, चली कलम है आज।।


बिखरे सुगंध लेखन की सदा , रचना भाव प्रधान।

पावन मन की होगी भावना, तजो मान- अभिमान।।


मिलता सदैव गुरु से ज्ञान है, गुरु हीरा की खान।

काम सर्वथा आता ज्ञान ही, मिलता जग में मान।।


मन पुलकित हो चलती लेखनी, रचना है इतिहास।

साधक का प्रतिफल है साधना, मन में होती आस।।


शरद चन्द्र की कला लुभावनी ,मन में भरे हिलोर।

थिरक उठा मन पुलकित बावरा, अवनी अम्बर छोर।।


धवल वसन पहनी है भूमिजा, किया धवल श्रृंगार।

शुभ्र ज्योत्सना चंचला शोभिता, तुहिन कणों के हार।।


तिमिर तोड़ कर डोली लालिमा, पुलक प्रभाती भोर।

पवन चले परिमल है भावना, पारिजात की डोर।।


चंचल चपला किरणें भोर की, मन में भरे उमंग।

हर्षित मन में खिलती कौमुदी, रात रती के संग।।


राधा मोहन करते रास हैं, शरद चन्द्र की रात।

सोलह कला की महा रास में, करे सोम बरसात।।


*चन्दा ताके प्रियवर चातकी, प्यासा यहाँ चकोर।*

प्रियतम की तृष्णा मिल तोड़ने, सूखे दृग के कोर।।


उपवन पंछी नदियांँ चाँदनी, सबका मोहक रूप।

उपवन सुरभित फूलों से सदा, मोहित उस पर भूप।।


आँगन में कोयल है कूकती, झुकती अमुवा डाल।

पीपल पनघट सूनी बावड़ी, कागा पूछे हाल।।


कितना पावन यह संकेत है,जीवन है अनमोल।

रजनी सहचर होती ओस की, किरणों से मत बोल।।


निस दिन सब मिलकर लेखन करें, करने सफल विधान।

पूरी करने गुरु की साधना, पटल रहे गतिमान।।


✍️ डॉ सीमा अवस्थी 

       भाटापारा छत्तीसगढ़।

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

करना मत प्राणी चिंता कभी, चिंता चिता समान। 

 बुद्धि आयु अरु सारा बल घटे,टरती लेकर जान।।1।।


रहता देखो दुखी किसान है, मिले न पूरा दाम।

देखो करे रात दिन एक वो, रहे मगर गुमनाम।।2।।


 राधा निशि दिन कान्हा से कहें, मत बिसराना मीत।

 सांची देखो अपनी प्रीत है, यही गीत संगीत।।3।।


रहता देखो दुखी किसान है, मिले न पूरा दाम।

देखो करे रात दिन एक वो, रहे मगर गुमनाम।।4।।


उसको फिरते खोजे हो कहां,प्रभु तो तेरे पास।

मानव जल में प्यासी मीन ज्यों, ऐसी तेरी आस।।5।।


डॉ सरला सिंह "स्निग्धा" 

दिल्ली

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१) कथा सुनाऊँ मैं  यह आपको, प्रेमचन्द है नाम।

मातु आंनदी  अनुपम थी बनी, पिता अजायब धाम।।


२) बचपन में धनपत कहते   सभी, लिखते नवाब राय ।

मातृ शोक उनको  अतिशय हुआ, ईश्वर बने सहाय।।


 ३)गबन , कफन व निर्मला है बना, सुंदर सृजन महान।

  पंच परमेश्वर  करे स्नेह से , सब का दुःख निदान।।


४) दूर रहें आडंबर से सदा,रहे सादगी  हाथ।

 शिवरानी थी बाल विधवा जो,जीवन में दी साथ।।


५))जन मानस के अतिशय दु,:ख से,बनी लेखनी धार।

नमन करूँ मैं शत शत आपको ,कर लो तुम स्वीकार।।


दूसरा प्रयास।


१)राखी का आया त्योहार है,भाई बहना प्यार।

स्नेह डोर को मंजुल बांध कर, खुशियां मिले अपार।।


२)बँधे कलाई पे चमके सदा, संग विश्वास  डोर।

महिमा महती निर्मल भाव का,चंदन बाँधे छोर।।


३)करूँ प्रार्थना पहले  ईश से,अक्षत लेकर हाथ।

कलश  स्नेह का मानस तुम भरों, देना मेरा साथ।।


४)अनुपम अँगरी(कवच) राखी है बनी,फूल बना विश्वास।

थाल सजा है मोहक भाव से,रखकर मन में आस।।


५)भाई बहना का है प्यार ये,जाने सकल जहान।

सावन  उत्तम राका (पूर्णिमा) आज है, बना त्योहार यह महान।।


स्वरचित आरती श्रीवास्तव विपुला 

जमशेदपुर झारखंड

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बहुत कठिन है जीवन की डगर,ज्यों होतीअसि धार।

जीवन राह  पर  चले  सूरमा,  करते   इसको  पार।।


जीवन  तो एक युद्ध क्षेत्र है, कभी  न   हिम्मत  हार।

धीरज रखकर साहस से लड़ें, निकलें संकट पार।।

 

जीवन बस दो दिन का खेल है, करें  नहीं अभिमान।

अमर है आत्मा नाशवान तन, सदा  रखें यह ध्यान।।


सत् का तो इस जीवन  में कभी, होता नहीं अभाव।

जो भी है जीवन रण में असत,रहे न  उसका भाव।।


चुने राह  इस जीवन की उचित,करें न गलत चुनाव।

इस जीवन में जो गलती करे, रहे   सदा  भटकाव।।


                              *© डॉ एन के सेठी*

दौसा, राजस्थान

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नन्हा सा कुलदीपक मोहता, नटखट चंचल लाल l

काले नैना शोभे काजरी, रोली चंदन भाल l 


झूठे सच्चे देख प्रपंच से, रहना है अनजान l 

वर दे हमको वीणापाणि माँ , अलग बने पहचान l 


पलकों के पट खोलें आज तो, जी भर कर लूँ बात l

चंदा बरसे तेरी चाँदनी, हो हाथों में हाथ l 


ईश भँवर में ये नौका फँसी ,हिंसक काली रात l 

सुनती हूँ जिसका कोई नहीं, बस तू रहता साथ l 


नीले अम्बर तारक शोभते, पूर्णिमा की रात l

हँसता lशीतल पुलकित चाँद दे , खुशियों की सौगात l


श्वेता "विद्यांशी"

मुजफ्फरपुर, बिहार

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क्षमाशीलता होती है बड़ी, यही निभा दे धर्म।

कट जाती कर्मों की बेड़ियां, निर्झर झरते कर्म।।१।।


जग में झूठी  मायाचारिता, फॅंसते उसमें लोग।

भरता एक दिन घड़ा पाप का, कब तक होगा भोग।।२।।


जनता खा रही घृत उधार का, ऊँची करती बात।

रहती चार दिन वही चांदनी, फिर अंधेरी रात।।३।।


जग में कल्पनाएँ अनंत हैं, सच्चाई कुछ और।

रखना है तालमेल साथ में, इसी बात पर गौर।।४।।


मन की जब जिसकी ताकत बढ़े, होने लगते काम।

कर्मों की करते आराधना, जग में होता नाम।।५।।


मधु राजेंद्र सिंघी

नागपुर-महाराष्ट्र

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शुक्ल पक्ष अश्विन की रात शुभ, खोल रखो सब द्वार।

आएंगी घर लक्ष्मी मात जी, खुश पूरा परिवार।।१।।


सागर मंथन से लक्ष्मी प्रकट, जग वैभव धन-धान्य।

देवी लक्ष्मी सुख ऐश्वर्य की, पुरा कथा यह मान्य।।२।।


शहदीया दूध धुली चांँदनी, शीतलता चहुंँओर।

तन मन भींगे टपके ओस से, प्रथम पहर के भोर।।३।।


बरसेंगे जो मोती वह अमृत, रोग दोष हो दूर।

लक्ष्मी माता के आशीष से, खुशियांँ हो भरपूर।।४।।


अमृत बूंँद बन गिरता रात में, आंँगन रखते खीर।

खीर पान से काया स्वस्थ हो, मिटता तन का पीर।।५।।


मनभावन दिखता है पूर्णिमा, स्निग्ध शरद की रात।

बादल हट जा देखूंँ चांँद मैं ,क्यों आई बरसात।।६।।


धरा व्योम तक बिखरी चांँदनी, हाथों में हो हाथ।

सखियाँ इठलाती प्रिय संग, चाहूँ तेरा साथ।।७‌।।


बिंदु प्रसाद रिद्धिमा 

 रांँची, झारखंड

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हे मां वीणा पुस्तक धारिणी, करती वन्दन आज।

कलम चलाऊं मैं जिस छ्न्द पर,पूरण करना काज।।


 माता हमारे हृदय पटल पर, आकर बैठो आप।

ज्योती निरन्तर जले ज्ञान की ,मिटे पाप संताप।।


श्यामा तेरे बिन नहिं राधिका ,राधा बिन नहिं श्याम।

जो राधे श्याम पुकारे नहीं,वो जिह्वा किस काम।।


अपने वश में कुछ नहीं,सब विधि के है हाथ।

है नियति कराती  हमसे सभी,भाग्य न देता साथ।।


धारण कर तन मानव का यहां,आते हैं प्रभु राम।

तीनों लोकों के भी नाथ से,नियति कराती काम।।


रही तैयारी राजतिलक की, हुआ तभी बनवास।

मति फेरी कैकेई की तभी,टूटी दशरथ आस।।


सीता नारी ऐसी पतिव्रता, दिया पती का साथ।

सुख राज अयोध्या का छोड़ कर, पकड़ राम का हाथ।।


आज्ञाकारी लक्ष्मण लाल भी,तजा राज सुख भोग।

सेवा में सिया राम के सदा,खड़े रहे ले जोग।।


प्रेम भरत भ्राता जग जानता,चले जहां रघुनाथ।

लौटे हैं अयोध्या प्रजा सहित, लिए खड़ाऊं साथ।।


हेमा जोशी, स्वाति,

लोहाघाट, उत्तराखंड

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

नारी को अबला समझो कभी, होगी तुमसे भूल ।

नारी तो हिय से कोमल सदा, नहीं चलाओ शूल ।।


लेकर चलती सबको साथ में,  रखती सबका ध्यान ।

सेवा भाव से जुड़ी नित रहे,  रख नारी का मान ।।


आई माता मेरे द्वार पे, पूजा करते लोग ।

लक्ष्मी रूपी माता शक्ति का, सभी लगाते भोग ।।


 दिव्य रात्रि होती कोजागिरी , छत में रखते खीर ।

बन जाती है मधु औषधि यही, हरती सबके पीर ।।


रास रचाते प्रिय कान्हा सदा, नाचे गोपी ग्वाल ।

मोहक मुरली धुन करती वहाँ , ग्वालों को बेहाल ।।


कोयल कूकी देखो बाग में, बैठी अमवा डार ।

गीत मधुर उसके सुनके सभी, हिय जाते हैं हार ।।


धन दौलत ही पैदा कर रहे,मन में लालच भाव ।

बिना विचारे करते हैं सदा,जीवन लगता दाव ।।


नवल छंद की कोशिश हम करें, नित करते प्रयास ।

हिय में आते नव विचार सदा, मन में हो उत्साह ।।


 नदी किनारे बगुला बैठकर, मछली रहता ताक ।

चोंच दबाए वो लेकर गया, इत उत रहता झाक ।।


माखन मेरा मोहन खा गया, मटकी मेरी फोड़ ।

नाच नचाए गोपी  को सदा, देता बांह मरोड़ ।।


सरला झा संस्कृति

रायपुर, छत्तीसगढ़

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

रतन टाटा जी दानवीर थे, भारत की तुम शान।

 वह करते दिखावा कभी नहीं, मिला तुम्हें बस मान।।


 भोले भाले थे कोमल हृदय, करें स्वान से प्यार।

 मन मंदिर में बसती सादगी, जीवन का यह सार।।


 सेवा करके ही जोड़ा जगत, महका घर संसार।

 पाया गौरव भूषण पदम, कभी नहीं तकरार।।


आगे बढ़कर करते ये मदद ,था कोरोना काल।

 देश भक्ति भरी रोम- रोम में, कार्य थे बेमिसाल।।


 डूबा है अनमोल यह रतन, युगों -युगों तक नाम ।

फैला यश है धरती नभ तलक, गूंजेगा अब काम।।


अलका जैन "आनंदी "

मुंबई, महाराष्ट्र

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

 *बंदे* जीवन के हर रंग का, लेना है आनंद।

  *बरसे खुशियांँ फिर तो हर* घड़ी, तज कर देखो द्वंद ।।


 *हर क्षण* कथन बड़ों का मानना, राह दिखाते नेक।

 *ऐसे* नाम बने पहचान  फिर , खोना नहीं विवेक ।।


 *सुनिए* रावण को पहचानना, मुश्किल है सरकार ।

पहन मुखौटा *प्रभु श्री* राम का , करता घातक वार।।


  *अब ये* युवा नशे में है पड़े, हुए लक्ष्य से दूर।

  जीवन *भर बस यूंँ* आंसू भरे, स्वप्न किये है चूर ।।


 *बेटे* भटके कैसे राह से, हुई कहांँ है भूल ।

लौटो घर को मेरे लाडलों ,नहीं चुभाओ  शूल।।


अंधेरे पथ पर *बढ़तें* गए, किसका थामें हाथ।

 *देखो* जीवन बस है रूठता, श्वास छोड़ती साथ।।


किरण कुमारी 'वर्तनी' 

जमशेदपुर, झारखंड

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शरद पुर्णिमा 

आयी देखो शारद पूर्णिमा , प्यारा यह त्योहार ।

बिखर रही आज धवल चाँदनी, उमड़े सबका प्यार।।


अनुपम शोभा मन को मोहती, बिखरी देख बहार।

मधुरिम सुन लो अब तो रागिनी, बहती रस की धार।।


छिटकी देख नशीली चाँदनी, करती जग पर राज।

तारे जगमग करते खूब हैं, चाँद बना है ताज।।


अंतस मन उत्साहित आज है,, गाता है मृदु राग।

कोजागिरि की रात मना रहे, लोग रहे हैं जाग।।


देती सबको देखो पूर्णिमा, शरद शुभम्  वरदान।

पूर्ण मनोरथ हों दो आज ही, सुख - समृद्धि का दान।।


प्रेम - सुधा बरसाती चाँदनी, देख शरद की रात।

सब ही नाचें लो निकली अभी, तारों की बारात।।


(C) रवि रश्मि  ' अनुभूति '

मुंबई    ( महाराष्ट्र ) 

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राह सरल इस जीवन में नहीं, संघर्षों का जोर।

भाग्य रेख है सबकी अलग ही,सुख दुख की है डोर।‌।


आपस में एक होड़ सी लगी, आगे बढ़ता कौन।

ज्ञानी धीरज धारे बैठते, बेबस है फिर मौन।।


अपने जेबें भरते देखते, होती है फिर जंग।

भाईचारा रिश्ते टूटते,देखे होकर दंग।।


योगमाया शर्मा

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बंशी धुन पर राधा झूमती, नाचे गोपी संग।

यमुना के तट पर डाली कदम, मन में उठे उमंग।।


देख कृष्ण- राधा की छवि युगल, शत शत करूँ प्रणाम।

भक्तों के मन में बसते सदा, नित्य सलोना श्याम।।


उषा झा 

जमशेदपुर झारखंड 


डॉ. संजय कौशिक "विज्ञात"
पानीपत, हरियाणा

गुरूदेव संजय कौशिक "विज्ञात" जी एक ऐसा नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है । कई वर्षो से छंदों पर सतत साधना का ही परिणाम है नये नये छंद  की खोज नये छंद का आविष्कार कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सालों की तपस्या की जरूरत पड़ती है । कलम की सुगंध के संस्थापक आदरणीय गुरूदेव संजय कौशिक "विज्ञात" जी सचमुच कलम की सुगंध फैलाने का कार्य कर रहे हैं ।आप गद्य और पद्य दोनों विधा में समालोचक की भी भूमिका निभाते नजर आते हैं वहीं छंदबद्ध कविताओं के साथ छंद-मुक्त रचनाएँ वहीं गद्य लेखन पर भी उतनी ही पकड़ है । आज कितनों की प्रेरणा बने हुए हैं । आपने हमेशा दूसरों को आगे बढ़ाया है । इस ज़ज्बे को प्रणाम करती हूँ । आज साहित्य के क्षेत्र में आपके जैसे साधकों की बहुत जरूरत है जो सही गलत का अर्थ बताकर साहित्य को समृद्ध करने में अपनी महती भूमिका निभा रहें हैं । आपकी सृजनशीलता में मानव मन की विभिन्न स्थितियों, सामाजिक जीवन की बारीकियाँ, लयात्मकता सभी विराजमान है । आपकी छंद विधाओं का ज्ञान व्यापकता लिए हुए है ।

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