विद्योत्तमा छंद मापनी
212 222, 222 212 21 .........
नफ़रतें करते हैं, हम खुद से भी अधिक आज।
वार सहते कितने, तुम समझो तो तनिक आज।।
भाव से जोड़े हिय, कविता उत्तम वही छंद।
पंक्ति चमकें नभ में, ज्यूँ तारों मध्य में चंद।।
पिंजरे तोड़े सब, ताकत रखता वही काव्य।
लेखनी दौड़ी अब, भावुक विद्योत्तमा भाव्य।।
कृष्ण राधा सी ये, पावन कविता लगे भाव।
और ये आस्था से, भरके तैरे नदी नाव।।
भक्ति गुरुवर की है, मेरे निखरे हुए छंद।
ज्ञान नौका चलती, बहती सी जो दिखे मंद।।
सुशीला जोशी 'विद्योत्तमा'
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दूसरी रचना
212 222, 222 212 21
कल्पना सी दिखती , कविता की साधना मूक ।
अब तलक भी खिल कर, करती है याचना चूक ।।
रोज देखो होता , अपमानित अर्चना थाल ।
हर समय झुकते है ,सज्जित से राजसी भाल ।।
है समर्पित आपको, हुलसी सी चाहना की रीत ।
जो हमेशा चाहे , चहकी सी सदा ही प्रीत ।।
दर्प की झूठी छवि ,जब भी उर में पली जीत ।
हार बैठी अपना, सबकुछ ही जीत कर मीत ।।
कामना करते थे ,देख उनका हाल बेहाल ।
देखते जब उनको , दिल पकड़े चाह की चाल ।।
सुशीला जोशी 'विद्योत्तमा'
विद्योत्तमा छंद की आदरणीया विद्योत्तमा जी को अनंत बधाई एवं शुभकामनाएं 💐💐💐
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