Wednesday, 2 June 2021

राधेगोपाल छंद शिल्प विधान और उदाहरण


 राधेगोपाल छंद 

■ राधेगोपाल छंद का शिल्प विधान ■ 

वार्णिक छंद है जिसकी मापनी और गण निम्न प्रकार से रहेंगे यह दो पंक्ति और चार चरण का छंद है जिसमें 6,8 वर्ण पर यति रहेगी। सम चरण के तुकांत समान्त रहेंगे इस छंद में 11,14 मात्राओं का निर्धारण 6, 8 वर्णों में है किसी भी गुरु को लघु लिखने की छूट है इस छंद में लघु का स्थान सुनिश्चित है। लघु जहाँ है वहीं पर स्पष्ट आना चाहिए। मापनी का वाचिक रूप मान्य होगा।

222 212

222 212 12

मगण रगण

मगण रगण लघु गुरु (लगा)

उदाहरण :- 

(1)

भूखा हो पेट जो, दो हीरे लाख दान में।

खाता है कौन यूँ, रत्नों के भोज्य मान में।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

(2)

लाई पाती वही , संदेशा आज नेह का।

पीड़ा वैराग्य में, भूले जो कष्ट देह का।

आना तो था उन्हें, पाती ये धन्य सी हुई।

भूले हैं वो मुझे, पूछें यूँ हाल गेह का।।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

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(1)
कर लो तुम आज तो, बातें हमसे अभी सनम।
खुश हो मन में सदा,  बोलो हमदम सभी प्रियम।
आती *पीड़ा* रही, करते सब रोज सामना ।
मन की सुन लो जरा,राधे लेती यही कसम।।

(2)
भक्तों को दूर से,करते हो याद आप भी।
हरते हो आप तो,दुख पीड़ा श्राप पाप भी।
आ करके देखलो,जनता भी आप है दुखी।
नाहक करने लगा,माला ले आज जाप भी।।


राधा तिवारी "राधेगोपाल"
एल टी अंग्रेजी अध्यापिका
खटीमा,उधम सिंह नगर
उत्तराखंड

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व्याकुल है ये धरा , पीड़ा अति व्योम भी सहे ।

झंझावाती हवा, देखो चारो दिशा बहे ।

करिए मिलकर सभी, उत्तम सा ही प्रयास वो ।

*पीड़ा* सबकी मिटे, व्यापित बस शांति ही रहे ।।


सहकर *पीड़ा* सदा, नारी निज कर्म पालती ।

रक्षित परिवार हो, आँचल शुभ छाँव डालती ।।

दिखलाती वो नहीं, *पीड़ा* मन की कभी कहीं ।

सहकर हर कष्ट वह, घर आँगन को सँभालती ।।


मूरत है त्याग की, अचला सी धीर धारती ।

नारी परिवार हित, जीवन मन प्राण वारती ।

*पीड़ा* अतुलित सहे, पर मुख से कुछ न बोलती ।

नैहर ससुराल में, दोनो ही वंश तारती ।।


         *इन्द्राणी साहू"साँची"*

         भाटापारा (छत्तीसगढ़)     

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मधुबन आओ करें, बातें कुछ नेह प्रीत की।
अब क्या मुझ में रही, मेरी पीड़ा न रीत की।
जग झूठा है सही, तुम से लागी लगन प्रभू।
बाजे है मुरलिया, धुन मीठी आज जीत की।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

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मेरी पीड़ा थकी, साथी ढूँढे कभी कभी।

गायें झूमें चलो, छाया बोली अभी अभी।

मीठी बोली सुनी, छाई प्यारी घटा हवा।

पैरों में पैंजनें, बाँधी नाची तभी तभी।


नीतू ठाकुर 'विदुषी'

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आओ प्रिय अब बसो,मेरे हिय नेत्र झील में।

मैं नीरस हो रही,सागर इस नेह नील में।

ये आशा मर रही,विरहन मैं लोक लाज से।

तन फॅंसता जा रहा,मानो ज्यों भाव कील में।।


    परमजीत सिंह 'कोविद'

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रख प्रभु का ध्यान अब, पीड़ा भी दूर हो जभी।

मिलता है ज्ञान जब, होंगे दुख दूर भी सभी।

प्रभु जब हैं पास तो , लो प्रभु आशीष भी मिले।

 रख प्रभु के ध्यान जब , दुर्जन से दूर हो अभी।

अजीत कुमार कुम्भकार 'निर्भीक'

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हारा मन हार के, कहता है चीत चोर प्रिय। 

नम कर के आँख को, करता जग रोज शोर प्रिय।। 

पीडा ही प्रेम है, अभिलाषा में बँधे रहे।

रंगीली याद में, होती आनंद भोर प्रिय।। 


✍️चमेली कुर्रे 'सुवासिता'

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औषधि तुम घाव मैं,रिसता क्यूँ नेत्र पीर से।

लिख नभ को पत्र फिर,भेजो उर अब्धि तीर से।

बिजली सी कौंधती, भू हृद अरु व्योम काँपता।

नम पत्री भीगती,बरसे घन मेघ धीर से।।


दीपिका पाण्डेय 'क्षिर्जा'

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कान्हा कान्हा जपूँ, मन में बसते सदा वही।

जोगिन उनकी बनूँ, सोचूँ मैं बस सदा यही।।

मेरे प्रीतम सुनो, आ जाओ एक बार तो।

भावों के पुष्प ये, करतीअर्पित यहाँ रही।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

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राधा रानी कहें,रूठे हो नंदलाल क्यों।

मटकी को तोड़ के,बदली है चाल-ढाल क्यों।

झूठा तूने रचा,सारा ही रंग-ढंग यह।

जानूँ लीला सभी,चलता है झूठ चाल क्यों।

*अनुराधा चौहान'सुधी'*

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गीत

राधे गोपाल हरि

आपस में आज यूँ ठनी।

वृन्दावन हरि रमें

राधाजी छाँव वट घनी।।


झूले पर रार करि

राधे गोपाल द्वय लड़े

पहले तू झूल अलि

दोनो ही पेड़ चढ़ अड़े

गोपी हँसती रही

बातो में बात अब तनी

राधे.................ठनी


मुरली झट छीन कर

राधे जी कान खींचती

गिरधर तब खूब हिय हँसे

राधा तब वक्ष पीटती

पुरवाई वायु चल

वर्षा तरु पात छनी

राधे............ठनी


ग्वाले भी हँस रहे

ताली दे दे नचे हँसे

राधे गोपाल हरि

उन सबके बीच द्वय फँसे

अपने यह सोच मन

जग में राधा बहुत धनी

राधे....................ठनी

बाबूलाल शर्मा ,बौहरा 'विज्ञ'

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राधे राधे जपो,

त्रैतापों की समाप्ति हो।।

 कान्हा कान्हा कहो।

 कान्हा की प्रीति प्राप्ति हो।।


 मीरा का था  वही,

वो ही था संत सूर का ।।

सारा संसार है 

कृष्णा,तेरा न और का।।

कृष्ण मोहन निगम जी

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*विधा गीत* 

*विषय मुश्किल*

पेड़ों को काट कर, सूखी कर दी यहाँ नमी।

संकट का काल है, जगती तो है विवश थमी।।


ढूंँढोगे आज तो,तुम देवों को यहाँ वहाँ।

पट खुलता ही नहीं,जाकर देखा कहांँ कहांँ।

भाषा बीमार है,आँखों में है गरम नमी।

संकट का काल है, जगती तो है विवश थमी।।


मरते हैं लोग अब,कैसा है रोग यह दिखा।

तुम भी तो देख लो, विधना ने भाग्य क्या लिखा।

वह भी बतला रहा, पूरी हो किस तरह कमी।

संकट का काल है, जगती तो है विवश थमी।।



चलकर कुछ दूर तक, साथी दो साथ भी कभी।

आया जो काल है, जाए यह बोलते सभी।।

राधे भी आज तो, क्यों कर इसमें रहे रमी ।

संकट का काल है, जगती तो है विवश थमी।।


राधा तिवारी "राधेगोपाल"

एल टी अंग्रेजी अध्यापिका

 खटीमा,उधम सिंह नगर

 उत्तराखंड



5 comments:

  1. राधेगोपाल छंद की मापनी पर मुक्तक सृजन का प्रयोग सभी को अनंत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐💐

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    1. कलम की सुगंध शाला मंच को बारंबार प्रणाम। गुरुदेव को सादर प्रणाम ।आपका ही यह आशीर्वाद है

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  2. गुरुदेव को सादर नमन।
    आज 02 जून 2021 को आप द्वारा प्रदत राधेगोपाल छंद पर सृजित महान कलमकारों द्वारा मुक्तक पढ़ मन बाग बाग हो गया।
    मैं राधा तिवारी "राधेगोपाल"
    एल टी अंग्रेजी अध्यापिका
    खटीमा,उधम सिंह नगर
    उत्तराखंड
    आप सभी विद्वानों की उपस्थिति को सादर प्रणाम 🙏 करती हूंँ।

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  3. Replies
    1. धन्यवाद आदरणीय कृष्ण कुमार क्रांति जी
      आप भी इस पर अपनी कलम जरूर चलाइएगा

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